Monday, April 26, 2010

कास्टिंग काउच और सेक्स की सच्चाई

सेक्स है तो हमारे समाज व इसके लोगों का मुंह खुला का खुला रह ही जाता है। दरअसल हम लोगों का माइंडसेट जमाने से ऐसा ही है। सेक्स ऐसा सब्जेक्ट है जिसकी जिस तरह से भी चर्चा कर दी जाए, लोगों में कौतुक, रहस्य व उन्माद पैदा हो जाता है. लोग सब कुछ जान लेने को आतुर हो जाते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि सेक्स लोगों के जीवन से गायब है. है भी तो बहुत घटिया, स्थूल, रहस्यमय और अबूझ रूप में. दिमाग, सोच व जीवन से सदियों से बाहर खदेड़ दिए गए, प्रतिबंधित किए गए, गैर कानूनी व असामाजिक घोषित किए जा चुके सेक्स की जरूरत हर व्यक्ति के जीवन में हर रोज उतनी ही होती है जितना रोज-रोज भोजन करना या अन्य दैनिक आधारभूत क्रियाकलाप के साथ जीना. पर हम सभी ऐसा प्रदर्शित करते हैं कि सेक्स से हमारा दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है. हम सेक्स पर बात नहीं करते. हम सेक्स के अनुभवों को शेयर नहीं करते. अगर कोई अनुभवों को सभ्य तरीके से शेयर करता है तो उसे हम पोर्नो मान गालियां देने में देरी नहीं लगाते. हम सेक्स के दर्शन पर लिखते-पढ़ते नहीं. सेक्स शब्द लिखने, बोलने, कहने से बचते हैं. लेकिन सार्वजनिक तौर पर जिसके होने से हम इनकार करते हैं, निजी तौर पर हम उसी के लिए चिंतित रहते हैं, उसी को पाने-जीने की कोशिश करते हैं.

मनोवैज्ञानिक फ्रायड पर भरोसा करें तो अपोजिट सेक्स के व्यक्ति के सामने होने पर हम उसके सेक्स के बारे में किसी न किसी रूप में जरूर सोचते हैं. यहां 'किसी न किसी रूप में' का मतलब 'किसी न किसी रूप में' ही है. पहनावा, पारिवारिक जीवन, जीवन साथी, व्यक्तित्व, व्यक्तित्व के आकर्षक बिंदु, खुशबू, अंदाज, नैन-नक्श, बातचीत का तरीका, सहजता-सरलता... आदि के बारे में सोचते हुए हम सेक्स की तरफ सोचने लगते हैं. सेक्स का स्थूल अर्थ एक दूसरे के साथ हमबिस्तर होना होता है और है भी यही लेकिन सेक्स दरअसल सही कहा जाए तो अपोजिट सेक्स का साथ है. अपोजिट सेक्स के प्रति आकर्षण और इसका इजहार, उसके साथ वक्त बिताने की इच्छा, उससे बात करने की तमन्ना... बेहद सहज-सरल मानवीय इच्छाएं हैं. इनमें कोई स्वार्थ नहीं है. स्वार्थ है तो इतना कि आप मेल हैं और सुंदर फीमेल का साथ आपको अच्छा लगता है या आप फीमेल हैं तो सुंदर मेल का साथ आपको अच्छा लगता है.

मीडिया में काम कर रहे एक वरिष्ठ पत्रकार नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर कहते हैं- ''अपोजिट सेक्स के साथ रहने-होने की इन निःस्वार्थ इच्छाओं में स्वार्थ भी घुस जाए तो किसे क्या फरक पड़ता है जब तक कि कोई जोर-जबरदस्ती न हो. जोर-जबरदस्ती किसी भी पक्ष की तरह से हो, वह गलत है क्योंकि यहां भी बात निजता की है, व्यक्ति की निजी आजादी का है. पर अगर दोनों पक्ष सहमत हैं और वे अपनी सहमति का सार्वजनिक नुमाइश नहीं कर रहे हैं तो उनके पीछे क्यों पड़ना चाहिए? पैसे वाली महिलाएं सैकड़ों पेड ब्वायफ्रेंड रखती हैं, पैसे वाले पुरुष सैकड़ों पेड गर्ल्स (उर्फ कालगर्ल्स) के साथ जुड़े होते हैं लेकिन इनकी चर्चा इसलिए नहीं होती क्योंकि ये समाज के वे एलीट लोग होते हैं जिनके लिए नैतिकता व नियम-कानून कोई मायने नहीं रखते बल्कि दूसरे शब्दों में सिस्टम इनके भोग-विलास व जीवन व्यापार को स्मूथ चलते देने रहने के लिए काम करता लगता है. देश के ब्यूरोक्रेट्स, नेता, उद्योपति... इनके निजी जीवन की जासूसी कराके देखिए. सेक्स को विराटता के साथ ये जीते हैं. चूंकि इन्हें इसी जड़ मानसिकता वाले भावुक हिंदी भाषी समाज में रहना है सो अपने किस्से-कर्म को बेहद गुप्त रखते हैं.

इनका सार्वजनिक जीवन बेहद पवित्र दिखता है और हम उसी के आधार पर उन्हें नेक, भला, जांबाज जाने क्या क्या मान लेते हैं. पर अपने निजी जीवन में ये बेहद खुले होते हैं. किस पुरुष उद्यमी के जीवन में (अपवादों को छोड़) दर्जनों लड़कियां नहीं हैं! वे दर्जनों लड़कियां इसलिए नहीं बोलतीं क्योंकि वे उद्यमी द्वारा ओबलाइज की जा चुकी होती हैं. पर अगर उसी उद्यमी के इंप्लाई के जीवन में कोई एक लड़की आ जाए और वह बेचारा उसे ओब्लाइज न कर पाए तो वह लड़की तूफान खड़ा कर सकती है, माया मिली न राम के अंदाज में. कुछ न कुछ तो सबको मिलना चाहिए. हमारे पुरुष प्रधान समाज में पुरुष मुक्त है, उन्मुक्त है, इसलिए सेक्सुवली वह कीमती नहीं है. परदे में रखने की परंपरा स्त्री को है, नैतिक बने रहने की आकांक्षा समाज स्त्री से ज्यादा करता है इसलिए सेक्सुवली स्त्री ज्यादा महत्वपूर्ण है. अगर स्त्री कुछ कहती है तो मान लिया जाता है कि वह पवित्र गाय सच में सही बोल रही है. पुरुष जो कहेगा-करेगा, यह माना जाएगा कि यह तो कामुक सांड़ है और इसने जरूर कोई हरकत की होगी. कल की पवित्र स्त्रियां आज अब कामुक मादाओं में तब्दील हो रही हैं. इस तब्दीली को अब घर परिवार स्वीकारने लगा है. ये बात बड़े शहरों तक में हैं. मादा पक्ष में पहनावे और चाल-चलन में अगर सेक्सुवलटी का पक्ष उभार पर हो तो हम लोगों को अब कोई दिक्कत नहीं होती. बाजार यही चाहता है.

मार्केट इकोनामी में कुछ भी ढंका छुपा नहीं है. सब खुला है. तो देह भी खुलेगा. सेक्स भी खुलेगा. पर समाज इसकी इजाजत नहीं देता. वह बंद रखना चाहता है. वह नैतिक बने रहने का आग्रह करता है. निजी तौर पर हम सेक्सुवली चाहे जितने अराजक हो जाएं लेकिन एक परिवार के मुखिया के तौर पर जब सोचते हैं तो इच्छा करते हैं कि परिवार के बाकी लोग सेक्सुवली नियंत्रित व नैतिक हों. यह सदिच्छा सदियों की उस जड़ सोच की उपज है कि सेक्स सिर्फ बच्चे पैदा करने जैसा कोई कर्म है या सेक्स कोई घटिया काम है या सेक्स अदर्शनीय-अकथनीय क्रिया है या सेक्स चोरी-छुपे अंधेरी रात में घटित होने वाला कोई तंत्र है.... बाजार उसी द्वंद्व को मजा ले रहा है. बाजारवादी इसी द्वंद्व पर पैसे बना रहे हैं. पोर्नो का इतनी बड़ी इंडस्ट्री इसलिए चल पा रही है क्योंकि सेक्स को लेकर बाजार व समाज दो एक्सट्रीम हैं, दो छोर है और हम इन दोनों छोरों में भुखाए दौड़ रहे हैं, गलत-सही, गलत-सही बतियाए जा रहे हैं.

जब हर काम के पीछे मंशा पैसे बनाना हो, तो कोई पैसे बनाने के लिए हर काम करे तो क्या गलत है? गलत उन लोगों को जरूर लगेगा जो नैतिक हैं, परिवार व समाज जैसी संस्था को जीते रहे हैं. अनैतिक उन्हें नहीं लगेगा जो पैसे वाले हैं, जो बाजार के खिलाड़ी हैं, जो एलीट हैं, जिनके जीवन में समाज व परिवार कभी एजेंडे में नहीं रहा हो. जिनके जीवन में कभी सिद्धांत व समाज जैसे शब्द आए ही न हों. ध्यान दें. हर काम के पीछे मंशा पैसे बनाना हो... मतलब, कई बार लोग नैतिक काम करते दिखते हैं लेकिन उसका मकसद सत्ता हासिल करना होता है, यश हासिल करना होता है, यश के जरिए पैसा हासिल करना होता है, यश के जरिए हुई मार्केटिंग के सहारे ब्रांड क्रिएट करना हो और ब्रांड के जरिए पैसा बनाना हो.... गहराई से देखिए,

अंततः सारी तरह की नैतिकता, कर्म, प्रवचन, भाषण, व्यापार, बाजार दर्शन, उद्यम, बदलाव, विकास की नदियां आखिर में जाकर पैसे रूपी समुद्र में गिरती हैं और वहीं से मोक्ष को पाती हैं, तृप्त हो जाती हैं, अशांत कामनाओं का नाश कर लेती हैं तो बाजार के इस दर्शन में देह पर नियंत्रण की बहस सार्थक कैसे है. देह स्त्री का है, देह पुरुष का है. एक देह अगर दूसरे देह का हिसाब लगाता है, उसका मूल्य लगाता है, उसका दीर्घकालिक हित समझाता है और बदले में देह की मांग करता है तो यह व्यापार विनिमय भले हमें अनैतिक लगे लेकिन बाजार की नजरों में कई अनैतिक नहीं है. बाजार की नैतिकता यही है कि चाहे जिस भी चीज के सहारे कमा लिए गए लाभ को नैतिकता कहते हैं. साधन महत्वपूर्ण नहीं है. साध्य पूरा होना चाहिए. साधन की पवित्रता का दर्शन जाने कब का बेमानी हो चुका है. हमारे समाज में ऐसी संख्या बहुमत में आज भी है, कल भी रहेगी और परसों भी रहेगी जो नैतिकता की बात करेगी, जो सेक्स की नैतिकता-अनैतिकता को जीवन-मरण का प्रश्न बना लेगी, जो आचरण की पवित्रता के आधार पर अपने हीरो को तय करेगी.... ऐसा इसलिए क्योंकि यही क्लास असली कंज्यूमर है. बाजार का कंज्यूमर. बाजार रूपी राजा का प्रजा. बाजारवादी सत्ता के वंचित जन.

अगर सभी बाजारवादी हो जाएं तो बाजार व्यवस्था के चूलें हिल जाएंगी. फिर उपभोक्ता कौन रहेगा. सभी लोग सभी कुछ बेचने के लिए तैयार रहेंगे तो खरीदार कौन होगा. तब दुनिया से बाजार व्यवस्था गायब होने का खतरा पैदा हो जाएगा. तब समाजवाद व सामूहिकता की बातें होने लगेंगी. शायद वो दौर भी आएगा लेकिन अभी वक्त है. ज्यादा नहीं, छह पीढ़ियों का और वक्त है. लगभग ढाई तीन सौ साल का. तब तक तो बाजार के लोगों के नियम अलग व समाज के लोगों के नियम अलग होंगे. इन नियमों की फांस में जिसकी गर्दन फंस गई उसे समाज गरियायेगा, बाजार लुभाएगा. जिसने अपनी गर्दन नहीं फंसाई वह कमजोर बना रहेगा क्योंकि वह मात्र कंज्यूमर रहेगा और कंज्यूमर के इंट्रेस्ट की कभी रक्षा की ही नहीं जा सकती क्योंकि कंज्यूमर से मुनाफा वसूला जाना नैतिक नियम हो तो कोई उसे लूट ले तो कहां अनैतिक होता है.

मिडिया में या और कहीं कास्टिंग काउच इसलिए है क्योंकि उस से आसानी से लाभ और सरीर की भूख मिट रही हैं. मीडिया में आने वालों को अच्छा लाभ मिलता है। वे सेलिब्रिटी बन जाते हैं। वे बाजार के दुलारे हो जाते हैं. वे सिस्टम के सम्मानीय हिस्से हो जाते हैं. वे ऐशो-आराम में जीने लायक हो जाते हैं. अगर इतने सारे लाभ किसी को मीडिया में आने से मिलता हो तो मीडिया में आने वाले गेट पर बैठे इंस्पेक्ट रूपी संपादक अगर इंट्री के बदले कोई फीस मांगते हैं तो उसे कैसे बुरा कहा जा सकता है क्योंकि वे इतने सारे लाभ देने वाले दरवाजे में घुसने के लिए लगी लाइन में से किसी एक को अंदर आने का मौका देते हैं व बदले में कुछ चाहते हैं तो गलत कैसे है? बाजार तो यही कहता है न कि कुछ तुम दो तो कुछ मैं दूं. अगर बाजार के हितों की रक्षा में न्यूज चैनल, मीडिया हाउस, अखबार, सत्ता आदि कार्य कर रहे हों तो बाजार के नियमों को कैसे गलत ठहरा सकते हैं.

लाख हल्ला गुल्ला किया गया कि टैम की टीआरपी के हिसाब से कार्यक्रम नहीं बनने चाहिए या मीडिया का मतलब विज्ञापनदाता की इच्छा अनुरूप बनाए गए प्रोग्राम नहीं होते लेकिन इसका असर न्यूज चैनलों पर नहीं पड़ा क्योंकि न्यूज चैनल इसलिए शुरू ही नहीं किए गए हैं कि समाज की बुराइयों के खिलाफ अभियान चलाया जा सके या समाज के गरीब लोगों की चेतना को उन्नत किया जा सके ताकि वे समझदार व उन्नत चेतना वालों के साथ कंधे से कंधा मिला कर चल सकें व ढेर सारे आदिम दुगुर्णों से मुक्त हो सकें. ये चैनल बिजनेस के उद्देश्य से लाए गए हैं. वे मुनाफा कमाने के लिए खोले गए हैं. इसीलिए चैनलों में आपस में मार मची होती है कि ज्यादा से ज्यादा टीआरपी लाओ. ज्यादा टीआरपी लाने के चक्कर में अच्छे संपादक बाहर होते जा रहे हैं व मीडियाकर किस्म के लोग संपादक बनते जा रहे हैं. मीडियाकर किस्म के लोगों को पता होता है कि टीआरपी न्यूज दिखाने से नहीं आती, ड्रामा क्रिएट करने व इसे सबसे ड्रामेबाज तरीके से एक्सक्लूसिवली पेश करने से मिलती है.

हम आप समाज की नजरों में भले विद्वान व आदर्श पुरुष हों पर बाजार की नजरों में एक घटिया व आउटडेटेड बुद्धिजीवी से ज्यादा नहीं. एक ऐसे समय में जब पैसा ही माई-बाप बना हुआ हो, जिन्हें पैसा नहीं मिला वे पैसे के लिए लड़ रहे हैं, जिनके पास है वह उसे बचाने व बढ़ाने के लिए जुटे हुए हैं, जो इससे बिलकुल वंचित हैं वे इसे जबरन हासिल करने के लिए बंदूक-लाठी लेकर सिर पर वार कर रहे हों.... तब कास्टिंग काउच जैसी चीज कोई अप्रत्याशित नहीं है. अप्रत्याशित है तो सिर्फ यह कि बाजारवाद के अति सक्रिय विस्तार के दौर में सेक्स अब भी दुविधा की चीज है. सेक्स अब भी बेहद पठनीय व सनसनीखेज विषय बना हुआ है. फर्जी नैतिकतावादियों से भरे इस देश में रिश्वत व देह चुपचाप लेने का चलन है. आदमी से रिश्वत लो, महिला से देह. लेना वाला अगर महिला हुई तो वो महिला से रिश्वत ले सकती है और किसी आदमी से देह. कई बार लोग अच्छी खासी मुद्रा रिश्वत लेने की जगह देह मांग लेते हैं. मिडिल क्लास, जो बातचीत व सामूहिक दर्शन में तो बेहद नैतिक होता है लेकिन लाभ दिखते ही अनैतिक बनने में सेकेंड भर का देर नहीं लगाता, इस समय का सबसे ड्रामेबाज जीव है. वह एक साथ बाजार व नैतिकता दोनों जी रहा है. जहां जिसकी गोटी फिट हो जाए.

इस मिडिल क्लास से कोई उम्मीद भी नहीं करना चाहिए क्योंकि मिडिल क्लास सुखों का लालची हो गया है और सुखों को बढ़ाना चाहता है पर सुख नहीं बढ़ने पर वह क्रांति की बातें करना लगता है और ज्योंही उसके हित सध जाते हैं, वह बाजार की भाषा बोलने लगता है. जो लोग हाशिए पर हैं, वे भी विकास के दायरे में आते ही उपभोक्तावादी बन जाते हैं और बेहतर खाना, बेहतर जीवन स्तर, बेहतर पहनावा, बेहतर रहन-सहन के आगोश में नए इंद्रियजन्य सुखों की ओर उन्मुख हो जाते हैं. बाजार व बाजारवादी आका भी यही चाहते हैं कि कोई बाजार की बुराइयों के बारे में सोचने लायक कोई रह ही न जाए, कोई स्वस्थ विचार पैदा ही न हो पाए इसलिए सबको इंद्रिजन्य भोग-उपभोग में फंसा दो और इसी को जीवन जीने का अंतिम लक्ष्य बना दो. इसीलिए ढेर सारे कपल पूरे जीवन सेक्स व समृद्धि को ही जीवन जीने का लक्ष्य मानकर जीते रहते हैं. बड़े शहरों के मालों में खाए-अघाए और सेक्स के लिए पगलाए लोगों की भीड़ दिख जाएगी. इन्हें किसी विचार या विचारधारा से कोई मतलब नहीं. बाजार विचार को ही खत्म कर देता है. शरीर से उपर नहीं उठने देता. अच्छा खाना, अच्छा सेक्स, तरह-तरह का खाना, तरह तरह के सेक्स, अच्छा पहनना, तरह-तरह के कपड़े, अच्छी नींद, तरह-तरह के सपने, अच्छा परिवार, तरह-तरह के परिजन, अच्छी कमाई, तरह-तरह के धंधों से कमाई.

पूछिए जरा उस मजूर से. सुबह से शाम तक दूसरे के खेतों में मजूरी करती लड़की कब जवान हुई व कब झुलस गई, उसे व उसके पति को पता ही नहीं चला. सेक्स न तो दोनों की सोच में रह गया और न जीवन में. कड़ी धूप में दिन भर ईंट-गारा या कटाई-बुवाई-निराई-गुड़ाई करने के बाद रात में खाते ही चिंताओं-तनावों को दगा दे कब नींद के आगोश में लुढ़क जाते हैं, इन्हें पता ही नहीं. लेकिन हम मिडिल क्लास लोग एंयर कंडीशनों में कूल होते अपने सिर-खोपड़ी से नानवेज-एल्कोलहल के हैंगओवर में उन्मादित हो रहे शरीर तक जाने किस किस तरह के संदेश भेजते रिसीव करते रहते हैं और अंततः उपयुक्त समय-अवसर देख आइडिया को इंप्लीमेंट कर देते हैं.

जो पकड़े नहीं जाते वे अच्छे 'मैनेजर' साबित होते हैं। और जो पकड़ गए वे बेचारे 'चोर'. पूछिए कास्टिंग काउच के असली सौदागरों से. उन तक लड़की पहुंचते-पहुंचते हिप्पोनेटाइज हो जाया करती है और खुद कपड़े उतारकर अपने को परोस देती है और खुशी-खुशी लौट जाती हैं, जल्द ही फिर से इस 'त्वरित अदभुत अनुभवों की रहस्यमय दुनिया' में लौटने का वादा करके.

Friday, April 16, 2010

थक जाओ गर पथरीले रास्तों पे चलते हुए

थक जाओ गर पथरीले रास्तों पे चलते हुए
कभी सोच न लेना की वहां तनहा हो तुम
मूँद कर पलकों को अपनी जो तुम देखोगे
अपने साथ ही सदा मुझ को पाओगे तुम

हर वक्त बुरा कट जात है, यकीन करना
आँखों मैं कभी तुम अश्क न भर लेना
धुंध बढ़ जाए, मुस्कराहट खोने लगे
अपनी दुआओं मैं मुझ को पाओगे तुम

इश्क नाम तो नहीं है मिलन का, दीदार का
दिल से दिल का मिल जाना है नाम-ऐ-मोहब्बत
जो याद आ जाए मेरी, न समझना की दूर हूँ
अपने सीने मैं धड़कता मुझ को पाओगे तुम

वक्त की गर्मी जो झुलसाने लगे वुजूद
मेरी चाहत की नमी को महसूस करना
जो सर्द हवां ज़माने की आने लगें पास
मेरी वफाओं की गर्मी को महसूस करना
मैं तुमसे जुदा तो नहीं हूँ मेरे हमदम
अपने साथ ही सदा मुझ को पाओगे तुम !!

बस एक झिझक यही है हाल-ऐ-दिल सुनाने में

बस एक झिझक यही है हाल-ऐ-दिल सुनाने में,
के तेरा जिक्र भी आ जाएगा इस फ़साने में !

बरस पड़ी थी जो रुख से नकाब उठाने में,
वो चांदनी है, अभी तक मेरे गरीब-खाने में !

इसी में इश्क की किस्मत बदल भी सकती थे,
जो वक़्त बीत गया मुझको आजमाने में !

ये कह के टूट गया साख-ऐ-गुल से आखरी फूल,
अब और देर है कितनी बहार आने में !

प्यार करने के लीये तो ये जिंदगी इतनी छोटी पड जाती है

प्यार करने के लीये तो ये जिंदगी इतनी छोटी पड जाती है ,
पता नहि लोग नफ़रत के लिये कैसे टाइम निकाल लेते है ,

उड़ गया रंग, खुशबु हवा हो गयी

उड़ गया रंग, खुशबु हवा हो गयी
जिन्दगी देखिये क्या से क्या हो गयी

दिल से रुखसत हुई जब ख़ुशी यूँ लगा
बाप के घर से बेटी बिदा हो गयी

दूर तक तीरगी, तीरगी, तीरगी
जिन्दगी एक अंधी गुफा हो गयी

उसकी आँखों ने छलकाए आंसू मेरे
उसकी सूरत मेरा आईना हो गयी

रास आयी नही मुझको आसानियाँ
मेरी मुस्किल मेरा हौंसला हो गयी

एक शय नाम जिसका था इंसानियत
देखते-देखते लापता हो गयी

काफिले का अब भटकना ही मुकद्दर हो गया

काफिले का अब भटकना ही मुकद्दर हो गया
रास्तों से जो नहीं वाकिफ वो रहबर हो गया

कल जमीं पर था अब उसका आसमां घर हो गया
देखते ही देखते कतरा समंदर हो गया

पत्थरों को छूके जिन्दा करने वाला आदमी
जिन्दगी को जीते-जीते खुद ही पत्थर हो गया

बात करता है मेरी आँखों में आँखें डाल कर
मेरा बेटा कद में अब मेरे बराबर हो गया

जिन्दगी तो एक मुसलसल जंग है इस जंग में
कोई पोरस हो गया कोई सिकंदर हो गया

प्यार से यारों ने भेजा था जो गुलदस्ता मुझे
मेरे छूते ही न जाने कैसे खंजर हो गया

अब न कोई चौंकता है और न रुकता है कोई
शहर में अब हादसा इक आम मंजर हो गया

पानी बदलो जरा हवा बदलो

पानी बदलो जरा हवा बदलो
जिंदगानी की ये फिजा बदलो

कह रही है ये दूर से मंजिल
काफिले वालो रहनुमा बदलो

तुम को जीना है इस जहाँ में अगर
अपने जीने का फलसफा बदलो

आंधियाँ तो बदलने वाली नहीं
तुम ही बुझता हुआ दिया बदलो

मुस्कराहट मिला के थोड़ी सी
अपने अश्कों का जायका बदलो

दाग अपने न जब नजर आये
जल्द से जल्द आईना बदलो

सारी दुनिया बदल गयी कितनी
तुम भी यार अब जरा बदलो

Friday, April 2, 2010

यह दुनिया बहूत रंगीन हैं

Tuesday, March 16, 2010

BABA BANEGE NETA

baba ki mansa bakhoobi nek aur niyat saaf ho sakti hain. lekin rajniti ke galiyare mein jahan satta lo loop log kursi ke liye apne sage tak ko kurban kar dete us par ankus karna sayad ek sanyasi ke liye bahoot hi doobhar kam hoga. wo bhle hi kapalbhati aur anulom vilom aur bhartiye yog vidya jo yog guru patanjali ki di hui thi ko punarjiwit kiya hain lekin rajnit ko saf suthara karna aur kaya palat karana sayad mrit sanjeevni buti khojne jaisa hoga. Haan baba bhi chahte hain ki soniya ji ki tarah reomote apne hath mein lekar delhi ki kursi par pakad majboot karein jaise yog ke jariye wo des videsh hi nahi gaon gaon tak alakh jaga rahe yog ki kshetra mein apna ekadhikar kayam kiya hain.lekin rajniti mein unke yog ka prabhav sayad hi nazar aayega. aur sahi mansa se wo is taraf kadam badha rahe hain to unka ye remote dish tv ki tarah clear aur saf suthri bharat ki tasvir ukeregi. aur rajniti ki gandi khel ki suruat jisne ki wo kautilya aur chankya ne bhi ise itna bekar aur galat mod diya tha ki wo bhi nahi bache, to rajnit saf suthri ho jayegi aisi asanka bilkul nahi hain.

Friday, September 11, 2009

The top layouts

The world class layout.