Friday, April 16, 2010

काफिले का अब भटकना ही मुकद्दर हो गया

काफिले का अब भटकना ही मुकद्दर हो गया
रास्तों से जो नहीं वाकिफ वो रहबर हो गया

कल जमीं पर था अब उसका आसमां घर हो गया
देखते ही देखते कतरा समंदर हो गया

पत्थरों को छूके जिन्दा करने वाला आदमी
जिन्दगी को जीते-जीते खुद ही पत्थर हो गया

बात करता है मेरी आँखों में आँखें डाल कर
मेरा बेटा कद में अब मेरे बराबर हो गया

जिन्दगी तो एक मुसलसल जंग है इस जंग में
कोई पोरस हो गया कोई सिकंदर हो गया

प्यार से यारों ने भेजा था जो गुलदस्ता मुझे
मेरे छूते ही न जाने कैसे खंजर हो गया

अब न कोई चौंकता है और न रुकता है कोई
शहर में अब हादसा इक आम मंजर हो गया

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